यदि आप हिन्दी व्याकरण में रस के बारे में जानना चाहते हैं, तो इस ब्लॉग में आपको रस का अर्थ, रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण मिलेंगे। और हम सभी रसों के विशेष विवरण, उदाहरण और प्रयोगों के साथ समझाएंगे।
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‘रस’ शब्द का सामान्य अर्थ ‘जल, स्वाद, आस्वाद, रसेन्द्रिय का ज्ञान अथवा आनंद होता है ।’
‘रस’ शब्द का मुख्य अर्थ –
‘आनंद’, इन्द्रिय भोग से लेकर आत्मानुभूति तक सभी प्रकार की सुखानुभूति को ‘रस’ कहा जाता है।’
रस की परिभाषा :
‘रस’ उस आनंद की प्राप्ति को कहते हैं, जो काव्य, कथा, नाटक, उपन्यास आदि के पढ़ने, सुनने या उसके अभिनय के द्वारा होती है।
रस विवेचन- ‘रसस्यते असो इति रसाः।’ अर्थात् जिससे आस्वाद मिले, वही रस है । यह रस का सामान्य अर्थ है। साहित्य के पठन-पाठन से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वही काव्यशास्त्र में रस कहलाती है। भारतीय साहित्य में ‘रस’ शब्द का प्रयोग प्राचीनकाल से होता आया है। भरतमुनि ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में ‘रस’ की विशद् विवेचना की है।
रस के निम्नलिखित 4 तत्त्व हैं-
1. स्थायीभाव –
हृदय में मूलरुप से विद्यमान रहने वाले भाव स्थायी भाव भी नौ ही हैं ।
रस और स्थायी भाव List
रस | स्थायी भाव |
---|---|
श्रृंगार रस | रति |
हास्य रस | हास |
करुण रस | शोक |
वीर रस | उत्साह |
रौद्र रस | क्रोध |
भयानक रस | भय |
वीभत्स रस | जुगुप्सा |
अद्भुत रस | विस्मय |
शान्त रस | निर्वेद |
वत्सल रस | वात्सल्यता (अनुराग) |
भक्ति रस | ईश्वर विषयक रति |
कतिपय विद्वानों ने ‘वत्सल’ और ‘भक्ति’ को अलग से रस मानते हुए एकादश रस की कल्पना की है। अतः रस भेद में दो रस और जुड़ गए
2. विभाव :
विभाव का अर्थ है ‘कारण’ । जो कारण हृदय में स्थित स्थायी भावों को जाग्रत तथा उद्दीप्त करते हैं, विभाव कहलाते हैं ।
विभाव के दो भेद हैं
(1) आलंबन विभाव (2) उद्दीपन विभाव |
(1) आलम्बन –
“जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण स्थायी भाव जाग्रत होता है। अर्थात् जिसे देखकर, सुनकर रस का गुण या मनोविकार जाग्रत हो उसे ‘आलम्बन’ कहते हैं । “
जैसे: नायक, नायिका आदि
आलंबन विभाव के दो भेद हैं
(क) विषय (ख) आश्रय
(क) विषय:
जिस पात्र के प्रति किसी भी पात्र में भाव जाग्रत होते हैं, वह ‘विषय’ होता है ।
(ख) आश्रय :
जिस पात्र में भाव जाग्रत होते हैं वह ‘आश्रय’ कहलाता है ।
(2) उद्दीपन विभाव :
“जो रस को और अधिक उद्दीप्त करते हैं मतलब रति स्थायी भावों को उद्दीप्त करके आस्वादन योग्य बनाते हैं वे उद्दीपन विभाव हैं । ”
3. अनुभाव –
“स्थायी भाव के जाग्रत होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं।” जैसे भय उत्पन्न होने पर रोंगटे खड़े हो जाना, पसीने से तर हो जाना, प्रिय मिलन में रोमांच, अश्रु आना, सिसकियाँ भरना, कठोर वाणी बोलना, आँखों का लाल होना आदि ।
4. संचारी या व्यभिचारी भाव
“आश्रय के मन में उठने वाले अस्थिर मनोविकारों को व्यभिचारी भाव कहते हैं।” ये पानी के बुलबुलों की भाँति मिटते – बनते हैं। इनकी संख्या तैंतीस है। गर्व, ग्लानि, मति, मोह, मरण, मद, श्रम, शंका, स्वप्न, स्मृति, हर्ष, निद्रा, धति, असूया, निर्वेद, अमर्ष, अपस्मार, अवहित्थ, जड़ता, चिंता, चपलता, क्रीड़ा, व्याधि, विबोध, विर्तक, विषाद, दैन्य, त्रास, आवेग, आलस, उग्रता, उत्सुकता, उन्माद । उदाहरण के लिए शकुन्तला के प्रति रतिभाव के कारण शकुन्तला को देख कर दुष्यंत के मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न होंगे, उन्हें संचारी भाव कहेंगे ।
रस के भेद
यहाँ संक्षेप में रसों का परिचय दिया जा रहा है।
(1) श्रृंगार रस-
रति श्रृंगार रस का स्थायी भाव है। जहाँ ‘रति’ स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव से पुष्ट होकर रस में परिणत होता है, वहीं श्रृंगार रस होता है। श्रृंगार रस को आचार्यों ने ‘आदि रस माना है। श्रृंगार रस को रस राज से भी विभूषित किया गया है।
श्रृंगार रस के दो भेद हैं-
(i) संयोग श्रृंगार-
“इसमें नायक-नायिका के संयोग या मिलन का वर्णन किया जाता है तब संयोग श्रृंगार होता है।” संयोग शृंगार की उत्पत्ति ऋतु, विषय एवं सुंदर वन, संगीत, माला, अनुलेपन, इष्टजन, सुगंध आदि के उपभोग एवं उपवन गमन, श्रवण, लीला, दर्शन, क्रीड़ा, आदि विभावों द्वारा होती है।
उदाहरण-
एक पल, मेरे प्रिया के दृग पलक थे उठे ऊपर,
सहज नीचे गिरे ।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय संबंध था । ।
(ii) वियोग श्रृंगार –
“वियोग की अवस्था में जब “मायक-नायिका के प्रेम का वर्णन हो तो उसे वियोग श्रृंगार कहते हैं ।” इसमें प्रेमी-प्रेमिका के एक दूसरे से अलग रहने से उत्पन्न मानसिक दशाओं का चित्रण रहता है ।
उदाहरण –
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना,
अँखियाँ दुखियाँ नहिं मानती हैं
2. हास्यरस –
“किसी व्यक्ति या वस्तु की वेशभूषा, वाणी, चेष्टा आदि की विकृति को देखकर हृदय में विनोद का जो भाव जाग्रत होता है, वह हास कहलाता है।” यही ‘हास’ नागक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव से पुष्ट होकर हास्य रस में परिणत हो जाता है ।
जैसे-
(i) आध पाव तेल में तैयारी करी रोसनी की,
आध पाव रुई में पुस्तक बनी बही की ।
आधी- आधी जोरि कवि बेनी की बिदाई किन्ही,
ब्याहि आयौ जब तेंन बोलै बात थिरकी ।
देखि देखि कागज तबियत सु मांदी भई
सादी कहा भाई, बरबादी भई घर की ।।
( इन पंक्तियों में कंजूस का रेखाचित्र खींचा गया है। प्रत्येक शब्द में उसकी हँसी उड़ाई गई है। यहाँ उसकी कंजूसी का मनोरंजक वर्णन है। बताया गया है कि कहाँ विवाह का अवसर और कहाँ थूक में सत्तू घोलने का प्रयत्न? सभी वस्तुओं का व्यय हास्यास्पद है।).
3. करुण रस-
“इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रेम पात्र का चिर वियोग, अर्थ-हानि से जहाँ शोक-भाव की परिपुष्टि होती है वहाँ करुण रस होता है।” विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से पूर्णता प्राप्त होने पर ‘शोक’ नामक स्थायी भाव से करुण रस की निष्पति होती हैं। वियोग श्रृंगार और करुण रस में प्रमुख अन्तर यह है कि वियोग श्रृंगार में प्रिय मिलन की संभावना रहती है, जबकि करुण रस में संभावना भी नहीं होती है ।
जैसे-
ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग कंटक – जाल लगे पुनि जोए ।
हाय! महादुख पायो सखा! तुम आये इतै न कितै दिन खोए ।।
देखि सुदामा की दीन-दशा करुना करि कै करुनानिधि रोए ।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए ।।
(मित्र सुदामा की दीन-दशा देखकर श्रीकृष्ण व्यथित हुए। उन्होंने सुदामा के कांटे लगे पैरों को देखकर व्यथा व्यक्त की है ।)
4. रौद्र रस-
“विरोधी पक्ष द्वारा किसी मनुष्य, देश समाज या धर्म का अपकार अथवा अपमान करने से उसके प्रतिशोध में जो क्रोध का भाव पैदा होता है, वही रौद्र रस के रुप में अभिव्यक्त होता है। ”
जैसे-
गर्भ के अर्भक काटन को पटुधार कुठार कराल है जाकौ ।
सोई हो बूझत राज समै धनु को दल हौ, दलिहौं बल ताकौ ।।
छोटे मुँह उत्तर देत बड़ौ लरि है मरि है करि है कछु साकौ ।
गोरो गरुर गुमान भरौ, कहो कौसिक छोटो सो ढोरा है काकौ ।।
(टूटा हुआ धनुष आलम्बन है। लक्ष्मण के उपहास एवं अवज्ञा के वाक्य उद्दीपन विभाव हैं। परशुराम द्वारा अपने बल एवं तेज का बखान तथा कुठार दिखाना अनुभाव है। बालवध द्वारा पाप का भाव वितर्क संचारी है रौद्र रस की निष्पत्ति स्पष्ट है)
5. भयानक रस-
किसी डरावनी वस्तु को देखने या शत्रु की आंशका से उत्पन्न भय नामक स्थायी भाव के विभाव, अनुभाव, एवं व्यभिचारी भाव आदि से परिपुष्ट होने पर भयानक रस की निष्पत्ति होती है।
जैसे-
समस्त सर्पों संग श्याम ज्यों कढे, कलिन्द की नंदिनी के सु- अंक से ।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महा शंकित भीत हो उठे । ।
हुए कई मूर्छित घोर त्रास से, कई भगे, मेदिनी में गिरे कई ।
हुई यशोदा अति ही प्रकापेता, ब्रजेश भी व्यस्त- समस्त हो गए । ।
(रस-भयानक, स्थायी भाव- भय, आश्रय-ब्रजवासी आलंबन- सर्पों से घिरे श्रीकृष्ण का दृश्य। अनुभाव – मूर्छित होना, भागना। संचारी भाव- आवेग, शंका, मोह आदि ।)
6. वीर रस –
“पराक्रम, आत्मरक्षा, शरीर – बल, बहादुरी, साहस, दृढ़तापूर्वक कार्य करने की शक्ति, निर्भीकता, युद्ध करने के प्रति तत्परता आदि भावो से उत्साह नामक स्थायी भाव के जागरण से वीर रस की अभिव्यक्ति होती है।” आचार्य भरतमुनि ने वीर रस को उत्तम प्रकृति का रस बताया है।
जय के दृढ़ विश्वासयुक्त थे दीप्तिमान जिनके मुख – मंडल ।
पर्वत को भी खंड-खंड कर रजकण कर देने को चंचल ।।
फड़क रहे थे अति प्रचंड भुज- दंड शत्रु मर्दन को विह्वल ।
ग्राम ग्राम से निकलकर ऐसे युवक चले दल के दल । ।
( स्थायी भाव- उत्साह, आलंबन-शत्रु, अनुभाव – मुख का दीप्तिमय होना, भुजाओं फड़कना आदि ।)
7. वीभत्स रस-
वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। “गन्दी, अरुचिकर, घृणित वस्तुओं को देखकर मन
में जो जुगुप्सा (घृणा) जागती है, वही विभाव, व्यभिचारी भाव से पुष्ट होकर वीभत्स रस की स्थिति को प्राप्त करती है ।”
जैसे-
रिपु- आँतन की कुंडली करि जोगिनी चबात ।
पीबहि में पागी मनो जुवति जलेबी खात ।।
(स्थायी भाव- जुगुप्सा, आलंबन- जोगिनी- उद्दीपन- आँतों को पीब में पाग पोग कर खाना । अनुभाव – नाक भौं सिकोड़ना, आँखें बंद करना आदि ।)
8. अद्भुत रस-
“आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखने सुनने से विस्मय भाव जाग्रत होता है। वही रस चक्र में पड़ कर अद्भुत रस में परिणत होता है।”
जैसे:
अखिल भुवन चर-अचर जग हरिमुख में लखि मातु ।
चकित भयी, गदगद वचन, विकसत दृग, पुलकातु । ।
(स्थायी भाव – विस्मय। आलंबन – श्रीकृष्ण का मुख । उद्दीपन मुख में अखिल भुवनों और चराचर प्राणियों का दिखना । अनुभाव- रोमांच, नेत्रों का विकसित हो जाना ।)
9. शान्त रस –
“संसार की क्षणभंगुरता एवं सांसारिक विषय भोगों की असारता और परमात्मा के ज्ञान से उत्पन्न निर्वेद (वैराग्य) ही पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है ।”
जैसे-
समता लहि सीतल भया मिटी मोहकी ताप ।
निसि वासर सुख निधि, ब्रह्म, अंतर प्रगट्या आप । ।
(स्थायी भाव- निर्वेद आलम्बन स्नेह- माया । उद्दीपन- मोह-माया त्याग करने पर संसार की नश्वरता का ज्ञान । अनुभाव – भगवान का भजन करने का उपदेश ।)
10. वात्सल्य रस-
“संतान के प्रति माता-पिता का जो स्नेह होता है, उसे ‘वात्सल्य रस’ कहा जाता है।”
जैसे :
हरि अपने आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सों नाचत,
मनहिं-मनहिं रिझावत । ।
(स्थायी भाव- वात्सल्य्जन्य स्नेह ।। आलंबन-बाल श्रीकृष्ण उद्दीपन- श्रीकृष्ण का गाना, नाचना । अनुभाव- माता यशोदा द्वारा छिपकर देखना।)